उत्तराखंड में भगवान शिव को समर्पित पांच केदार हैं जिन्हें पंच केदार के नाम से जाना जाता हैं। उन्हीं में से तीसरा केदार हैं तुंगनाथ मंदिर। इस मंदिर का निर्माण आज से हजारों वर्षों पूर्व महाभारत के समय में पांडवों के द्वारा किया गया था। तुंगनाथ मंदिर हिमालय की पहाड़ियों पर अलकनंदा व मंदाकिनी नदियों के बीच भगवान शिव का मंदिर है।
यदि आप रोमांच के साथ-साथ धार्मिक यात्रा का मिश्रण चाहते हैं तो अवश्य ही तुंगनाथ मंदिर होकर आये। तुंगनाथ मंदिर से ऊपर प्रसिद्ध चंद्रशिला पहाड़ी भी हैं यह स्थान भगवान राम से भी जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि यहां रामचंद्र ने अपने जीवन के कुछ क्षण एकांत में बिताए थे।
ऐसा है तुंगनाथ मंदिर
इस मंदिर से जुड़ी कई कहानियां और मान्यताएं प्रसिद्ध हैं। ऐसा कहते हैं कि यहां पर भगवान शिव के हृदय और बाहों की पूजा होती है। यहां आपको बता दें कि समुद्रतल से इस मंदिर की ऊंचाई 12,000 फुट से ज्यादा है। इसी कारण इस मंदिर के आस-पास के पहाड़ों पर बर्फ जमी रहती है। अन्य चार धामों की तुलना में यहां पर शिव भक्तों की भीड़ कुछ कम होती है इसके बावजूद फिर भी हजारों की संख्या में हर वर्ष भक्तों का यहां तांता लगा रहता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान राम ने जब रावण का वध किया, तब स्वयं को ब्रह्माहत्या के शाप से मुक्त करने के लिये उन्होंने यहाँ शिव की तपस्या की। तभी से इस स्थान का नाम ‘चंद्रशिला’भी प्रसिद्ध हो गया।
यह है तुंगनाथ मंदिर के पीछे की कहानी
-
इस मंदिर के बारे में पौराणिक कथा प्रचलित हैं। ऐसा कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडवों पर अपने भाइयों की हत्या का आरोप लगा। ऐसे में पांडव भातृहत्या पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना आवश्यक था लेकिन भगवान शिव पांडवों से मिलना नहीं चाहते थे।
-
पांडव उनके दर्शन के लिए काशी गए पर वहां भी वे नहीं मिले। तब वे उन्हें खोजते हुए हिमालय तक जा पहुंचे लेकिन फिर भी भगवान के दर्शन उन्हें नहीं हुए। भगवान शिव केदारनाथ जा बसे लेकिन पांडव अपने इरादे के पक्के थे। वे उनका पीछा करते हुए केदारनाथ पहुंच गए।
-
भगवान शिव ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया था लेकिन पांडवों को संदेह हो गया था। ऐसे में भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ों पर अपने पैर फैला दिए। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए परंतु शंकर रूपी बैल भीम के पैर के नीचे से कैसे निकलते। भीम ने जैसे ही उस बैल को पकड़ना चाहा वह धीरे-धीरे जमीन के अंदर होने लगा।
-
भीम ने बैल के एक हिस्से को पकड़ लिया। पांडवों की भक्ति और दृढ़-संकल्प देख भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और उन्होंने पांडवों को दर्शन देकर पाप मुक्त कर दिया।
-
उसी समय से भगवान शंकर के बैल की पीठ की आकृति पिंड रूप में केदारनाथ में पूजी जाती है। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान बैल के रूप में अंतर्धयान हुए तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमांडू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का मंदिर है।
-
शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेर में और जटा कल्पेर में प्रकट हुई इसलिए इन चारों स्थानों सहित केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिव के भव्य मंदिर बने हुए हैं।
-
ऊखी मठ-चोपता मार्ग पर मुक्खु मठ स्थित है। मुक्ख मठ तक सड़क मार्ग से पहुंचा जाता है। फिर आगे लगभग 3.5 किलोमीटर की यात्रा पैदल की जाती है। हिमालय में प्रकृति और पर्वतीय सौंदर्य का आकर्षक यहां आकर पूरा हो जाता है। घने जंगल से गुजरता हुआ मंदिर तक का मार्ग भक्तो के मन में सदा के लिए अपनी छाप छोड़ जाता है। जो साधक एकांत में साधना करने की इच्छा रखते हैं उनके लिए यह स्थान पूरी तरह उपयुक्त है।
आकर्षक दृश्य
तुंगनाथ मंदिर के आसपास नवंबर के बाद से ही बर्फ का सुंदर नजारा दिखने लगता है। जहां तक नजरें जाती हैं वहां तक मखमली घास और पर्वत और आसपास बर्फ देखकर यूं लगता है जैसे बर्फ की चादर बिछी हो। यह नजारा इस जगह को और भी ज्यादा खूबसूरत बना देता है। साथ ही खिले हुए बुरांश के फूल जिन्हें देखकर आपकी नजरें ही नहीं हटेंगी उनसे।
तुंगनाथ: कब और कैसे पहुंचे
मई से नवंबर तक यहां कि यात्रा की जा सकती है। हालांकि यात्रा बाकी समय में भी की जा सकती है लेकिन बर्फ गिरी होने के कारण से वाहन की यात्रा कम और पैदल यात्रा अधिक होती है। जनवरी व फरवरी के महीने में भी यहां की बर्फ की मजा लेने जाया जा सकता है।
दो रास्तों में से किसी भी एक से यहाँ पहुँचा जा सकता है:-
- ऋषिकेश से गोपेश्वर होकर। ऋषिकेश से गोपेश्वर की दूरी 212किलोमीटर है और फिर गोपेश्वर से चोपता चालीस किलोमीटर और आगे है, जो कि सड़क मार्ग से जुड़ा है।
- ऋषिकेश से ऊखीमठ होकर। ऋषिकेश से उखीमठ की दूरी 178किलोमीटर है और फिर ऊखीमठ से आगे चोपता चौबीस किलोमीटर है, जो कि सड़क मार्ग से जुड़ा है।