भागदौड़ भरी जिंदगी के साथ दिन-रात की चहल-पहल, शाम को चलते-फिरते वाहन, कीड़ों की तरह चलती भीड़, जहरीली हवा और धूल भरा वातावरण और हलचल के बीच दिल्ली के बीचो-बीच तमाम रहस्यों को समेटे हुए वर्षों से शांत और शीतल वातावरण में खड़ी है 'अग्रसेन की बावली'। यह बावड़ी 60 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा कुआं है जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित है और दिल्ली के सबसे आकर्षक क्षेत्रों में से एक, कनॉट प्लेस में हैली रोड में स्थित है।
ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण महाभारत काल के दौरान हुआ था, लेकिन बाद में अग्रवाल समाज के महाराजा अग्रसेन ने इसकी मरम्मत की, जिसके बाद इसे 'अग्रसेन की बावली' के नाम से जाना जाने लगा। हालाँकि, अभी तक ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला है जो निश्चित रूप से इस समृद्ध स्माकर के निर्माण की पहचान कर सके।
इसका नाम देश की सबसे डरावनी जगहों की लिस्ट में शामिल है। ऊपर से, इस बावड़ी की लाल बलुआ पत्थर की दीवारें काफी प्यारी लगती हैं, लेकिन जैसे ही आप सीढ़ियों से नीचे उतरते हैं, एक अजीब सी गहरी चुप्पी फैलने लगती और आकाश गायब होने लगता है।
इस बावड़ी में कई अनसुलझी पहेलियां हैं जो आज तक अनसुलझी हैं। हालांकि, शांत वातावरण में किताबें पढ़ने के लिए लोग यहां तेजी से आ रहे हैं। कई लोग इसकी खूबसूरती के कारण भी यहां खींचे चले आते हैं।
बावली के बारे में कुछ रोचक बातें-
• इस बावड़ी की तह तक पहुँचने के लिए कुल 103-105 सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं।
• बावड़ी की इस शैली को अतीत में पानी के संरक्षण के लिए बनाया गया था।
• दिल्ली और पुरानी दिल्ली के लोग एक समय यहां तैरना सीखने आते थे।
• एक समय बावली का कुआं काले रंग के पानी से भरा हुआ था।
• यह काला पानी यहां आने वाले लोगों को सम्मोहित कर आत्महत्या के लिए उकसाता था।
• इस बावड़ी का इस्तेमाल 'पीके' और 'झूम बराबर झूम' समेत कई बॉलीवुड फिल्मों में किया गया है।
• यह दिल्ली की उन चंद बावड़ियों में से एक है जो अभी तक खराब नहीं हुई हैं।
• इसमें एक छत है जो एक व्हेल की पीठ जैसा दिखता है।
भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार के नक्शे के अनुसार, स्मारक 1868 में ब्रिटिश प्रशासन द्वारा बनाया गया था और इसे 'ओजर सेन की बोवली' के नाम से जाना जाता है। वहीं बावली के बाहर लगे शिलापट पर इसका नाम 'उग्रसेन की बावली' लिखा हुआ है।
बावली के पश्चिमी कोने में एक साधारण मस्जिद का निर्माण किया गया है। इस मस्जिद के स्तंभों में उल्लेखनीय विशेषताएं और रंग हैं जो बौद्ध काल के कुछ सबसे असाधारण संरचनाओं को दर्शाते हैं।
बावली के शून्य शांत वातावरण में पत्थर की ऊंची-ऊंची दीवारों के बीच जब कबूतरों की गुटरगूँ और चमकादड़ों की चीखें और फड़फड़ाहट गूंजती है, तो बावली का माहौल पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर देता है।यहां आने वालों ने अक्सर एक अनदेखी उपस्थिति को महसूस किया है।
यह बावड़ी कुछ साल पहले तक प्रसिद्ध नहीं थी, लेकिन आमिर खान की पीके के फिल्मांकन के साथ, यह जोड़ों और पर्यटकों के लिए एक प्रसिद्ध गंतव्य बन गया। अब यहां काफी संख्या में लोग आ-जा रहे हैं।